क्या न्यायपालिका खुद जवाबदेही से बच रही है? संपत्ति खुलासे में HIGHCOURT के जजों की चुप्पी पर उठते सवाल

 पारदर्शिता की कसौटी पर न्यायपालिका
भारत की न्यायपालिका, जो संविधान की सबसे बड़ी रक्षक मानी जाती है, आज खुद पारदर्शिता के सवालों के घेरे में है। सुप्रीम कोर्ट की फुल बेंच द्वारा ऐतिहासिक निर्णय लेने के बावजूद, देश के अधिकांश हाईकोर्ट जज अब भी अपनी संपत्ति का खुलासा करने से पीछे हट रहे हैं। हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से नकदी बरामद होने की घटना ने पूरे देश को चौंका दिया, जिससे यह सवाल और गंभीर हो गया है—क्या जिस संस्था पर जनता आंख मूंद कर भरोसा करती है, वही संस्था जवाबदेही से मुंह मोड़ रही है?

आंकड़ों से झांकती सच्चाई
भारत के 24 हाईकोर्ट में कुल 762 कार्यरत जज हैं, लेकिन इनमें से केवल 95 जजों ने ही अपनी संपत्ति सार्वजनिक की है—जो कि महज 12.46% है। सबसे पारदर्शी केरल हाईकोर्ट रहा है, जहां 44 में से 41 जजों ने अपनी संपत्ति की जानकारी वेबसाइट पर दी है। पंजाब-हरियाणा में 30, हिमाचल में 11 और दिल्ली में सिर्फ 7 जजों ने संपत्ति का खुलासा किया है। लेकिन राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखंड सहित 18 हाईकोर्ट के किसी भी जज ने अब तक कोई जानकारी सार्वजनिक नहीं की है।

 सुप्रीम कोर्ट की पहल और तकनीकी अड़चनें
सुप्रीम कोर्ट के 33 में से 30 जजों ने अपनी संपत्ति की जानकारी मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना को सौंप दी है, लेकिन तकनीकी कारणों से उसे वेबसाइट पर सार्वजनिक नहीं किया जा सका है। यह समझना जरूरी है कि जजों के लिए अपनी संपत्ति घोषित करना कानूनन अनिवार्य नहीं है, लेकिन 1997 में तय किए गए ‘री-स्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज ऑफ ज्यूडिशियल लाइफ’ के अनुसार यह एक नैतिक जिम्मेदारी मानी जाती है। सुप्रीम कोर्ट की यह पहल सराहनीय है, लेकिन जब हाईकोर्ट पारदर्शिता से दूरी बना लें, तो यह एक चिंताजनक संकेत है।

 संसद की समिति की सिफारिशें
अगस्त 2023 में संसद की स्थायी समिति ने सिफारिश की कि न्यायाधीशों को भी अपनी संपत्ति और देनदारियों का सार्वजनिक रूप से खुलासा करना चाहिए। समिति का तर्क था कि जब सांसदों और विधायकों की संपत्ति की जानकारी आम जनता के लिए उपलब्ध होती है, तो न्यायपालिका को इससे अलग क्यों रखा जाए? पारदर्शिता कोई औपचारिकता नहीं, बल्कि एक जरूरी प्रक्रिया है, जिससे संस्थानों पर जनता का भरोसा कायम रहता है।

 जवाबदेही से ही बनेगा भरोसा
न्यायपालिका को लोकतंत्र का सबसे मजबूत स्तंभ माना जाता है, लेकिन जब यही स्तंभ अपनी नैतिक जवाबदेही से पीछे हटे, तो भरोसा कमजोर होता है। देश की जनता यह जानना चाहती है कि जिनके हाथ में फैसले करने की शक्ति है, वो खुद कितने साफ हैं। संपत्ति का खुलासा एक छोटी सी पहल हो सकती है, लेकिन इसका असर बड़ा होता है। यह न केवल पारदर्शिता को बढ़ाता है, बल्कि जनता और न्याय व्यवस्था के बीच की दूरी को भी कम करता है।

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