प्रसिद्ध शिक्षाविद एवं पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन
भारत रत्न डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन
5 सितम्बर 1888 (तिरुत्तनी, तिरुवल्लुवर जिला, तमिलनाडु)
पिता- सर्वपल्ली वीरास्वामी
माता- सीताम्मा
पत्नी- सिवाकामू
विवाह- 1903
शिक्षण
मैट्रिक (हाईस्कूल)- 1902, हर्मेन्सबर्ग इंवेजेलिकल लूथरन मिशन स्कूल, तिरुपति
एफ०ए० (इंटरमीडिएट)- 1904, वोरी कॉलेज, वेल्लोर
बी०ए०(दर्शनशास्त्र)- 1906, मद्रास क्रिश्चियन कालेज
एम०ए०(दर्शनशास्त्र)- 1908, मद्रास क्रिश्चियन कालेज
मद्रास प्रेसीडेंसी कालेज में दर्शनशास्त्र के शिक्षक- 1911
मैसूर विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर- 1918
कलकत्ता विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर- 1920
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में व्याख्यान- 1927
आन्ध्र विश्वविद्यालय, वाल्टेयर के कुलपति- 1931
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में समालोचक प्रोफेसर- 1936
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कुलपति: 1939-1948
विश्वविद्यालय आयोग के अध्यक्ष- 4 नवम्बर 1948
रूस में भारत के राजदूत- 1949
भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति: 1952-1962
भारत रत्न- 1954
भारत के राष्ट्रपति: 1962-1967
मृत्यु
17 अप्रैल 1975
रचनाएँ
प्रथम रचना: द एथिक्स ऑफ द वेदान्त एण्ड इट्स मेटॉफिजिकल प्रीजम्पशन्स- 1908
द फिलासफी ऑफ रवीन्द्रनाथ टैगोर- 1918
इंडियन फिलासफी (दो खण्ड)- 1923, 1927
द हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ- 1927
द रिलिजन वी नीड- 1928
द हार्ट ऑफ हिन्दुस्तान- 1932
एन आइडियलिस्टिक व्यू ऑफ लाइफ- 1932
एजुकेशन, पॉलिटिक्स एण्ड थॉट- 1944
रिलिजन एण्ड सोसाइटी- 1947
द भगवद्गीता- 1948
द धम्मपद- 1950
द प्रिंसिपल ऑफ उपनिसद्स- 1953
रिकवरी ऑफ फेथ- 1955
ईस्ट एण्ड वेस्ट- 1955
द ब्रह्मसूत्र- 1961
रिलिजन इन ए चेंजिंग वर्ल्ड- 1967
जीवन दर्शन
डॉ॰ राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए। सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- “मानव को एक होना चाहिए। डॉ॰ राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे वह जिस भी विषय को पढ़ाते थे, पहले स्वयं उसका गहन अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गम्भीर विषय को भी वह अपनी शैली से सरल, रोचक और प्रिय बना देते थे।
अध्यवसायी जीवन
1909 में 21 वर्ष की उम्र में डॉ॰ राधाकृष्णन ने मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में कनिष्ठ व्याख्याता के तौर पर दर्शन शास्त्र पढ़ाना प्रारम्भ किया। यहाँ उन्होंने 7 वर्ष तक न केवल अध्यापन कार्य किया बल्कि स्वयं भी गहराई से अध्ययन किया करते थे । इसी कारण 1910 में राधाकृष्णन ने शिक्षण का प्रशिक्षण मद्रास में लेना आरम्भ कर दिया। इस समय इनका वेतन मात्र 37 रुपये था। दर्शन शास्त्र विभाग के तत्कालीन प्रोफ़ेसर राधाकृष्णन के दर्शन शास्त्रीय ज्ञान से अत्यन्त अभिभूत हुए । विषय पर गहरी पकड़ रहने के कारण जब राधाकृष्ण ने अपने कक्षा साथियों को तेरह ऐसे प्रभावशाली व्याख्यान दिये, जिनसे वे शिक्षार्थी भी चकित रह गये। 1912 में डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की “मनोविज्ञान के आवश्यक तत्व” शीर्षक से एक लघु पुस्तिका भी प्रकाशित हुई जो कक्षा में दिये गये उनके व्याख्यानों का संग्रह था। इस पुस्तिका के द्वारा उनकी यह योग्यता प्रमाणित हुई कि “प्रत्येक पद की व्याख्या करने के लिये उनके पास शब्दों का अतुल भण्डार तो है ही, उनकी स्मरण शक्ति भी अत्यन्त विलक्षण है।”