लोकतंत्र में डर का नहीं, समझ का होना चाहिए स्थान
भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, जहां हर नागरिक को वोट देने का अधिकार एक पवित्र कर्तव्य की तरह प्राप्त है। लेकिन जब कोई जनप्रतिनिधि यह कहता है कि “जो वोट नहीं देगा, वह अगले जन्म में कुत्ता-बिल्ली बनेगा”, तो यह न केवल संविधान की भावना का अपमान है, बल्कि आम जनता की समझदारी और आत्मसम्मान पर भी चोट है। यह बयान बीजेपी विधायक उषा ठाकुर का है, जो पहले मंत्री पद भी संभाल चुकी हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या डर फैलाकर वोट लेना अब नया राजनीतिक हथियार बन चुका है?
धर्म और राजनीति का खतरनाक मिश्रण
उषा ठाकुर ने न सिर्फ वोट न देने वालों को जानवर बनने की चेतावनी दी, बल्कि यह भी दावा किया कि उनका भगवान से सीधा संवाद होता है और भगवान ने उन्हें बताया कि बीजेपी को वोट देना ही ‘धर्मोचित’ है। यह एक चिंताजनक संकेत है — जब नेता निजी विश्वासों को सार्वजानिक मंच पर इस तरह प्रस्तुत करते हैं, तो यह लोकतंत्र की नींव को हिला देता है। क्या हर मतदाता को अब धर्म के नाम पर तय करना होगा कि वह किसे वोट दे? इस प्रकार की बयानबाज़ी समाज को बाँटने का कार्य करती है, न कि जोड़ने का।
संविधान के खिलाफ सीधा हमला?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि उषा ठाकुर का यह बयान दर्शाता है कि संभवतः जमीनी समर्थन कमजोर हो रहा है और वोटों के लिए अब भय और धार्मिक आस्थाओं का सहारा लिया जा रहा है। यह आचार संहिता और संविधान दोनों के खिलाफ है। भारत में वोट देना एक अधिकार है, न कि कोई धार्मिक अनुष्ठान, जहां देवता के गुस्से से डरकर फैसला लिया जाए। यह बयान मतदाताओं के अधिकार का सीधा अपमान है, और लोकतंत्र के खिलाफ एक मानसिक हमला।
जागरूक नागरिकों को सोचना होगा — क्या यह लोकतंत्र है?
उषा ठाकुर का यह बयान सिर्फ आपत्तिजनक नहीं है, बल्कि हर जागरूक नागरिक को सोचने पर मजबूर करता है — क्या हमारे नेता अब विकास, नीति और पारदर्शिता की जगह धार्मिक डर और निजी दावे लेकर चुनाव जीतना चाहते हैं? क्या यह जनता का अपमान नहीं है कि उन्हें जानवर बनने की धमकी दी जाए? लोकतंत्र में नेताओं की जवाबदेही होती है, डर पैदा करने की नहीं। यह वक्त है जब जनता को समझदारी से न सिर्फ वोट देना है, बल्कि यह भी तय करना है कि वह कैसे नेताओं को अपने भविष्य की चाबी सौंप रही है।